बाल विवाह सामाजिक अभिशाप रूपरेखा-
(1) प्रस्तावना
(2) विवाह का महत्त्व
(3) विवाहों के प्रकार
(4) विवाह के विकृत स्वरूप
(5) बाल विवाह एक सामाजिक अभिशाप
(7) उपसंहार
प्रस्तावना
भारतीय संस्कृति संस्कारमयी है। पूर्व पुरुषों ने मानव जीवन में षोडश-संस्कारों की व्यवस्था की थी। पाणिग्रहण अथवा विवाह इनमें अत्यन्त महत्त्वपूर्ण संस्कार माना गया है। विवाह गृहस्थ जीवन का प्रवेश-द्वार है। आश्रम व्यवस्था में प्रथम पच्चीस वर्ष ब्रह्मचर्य अथवा छात्र-जीवन के लिये नियत किये गये थे। आज की परिस्थितियों में यह सीमा कन्या के लिये 18 वर्ष तथा पुरुष के लिये 21 वर्ष स्वीकार की गई है।
विवाह का महत्त्व
विवाह पारिवारिक जीवन का आधार है। पितृऋण से मुक्ति पाने के लिये विवाहोपरान्त संतानोत्पत्ति आवश्यक मानी गई है। विवाह के पश्चात् ही अनेक धार्मिक एवं सामाजिक क्रिया-कलापों में भाग लेने की पात्रता प्राप्त होती है। अतः विवाह का रूप और विधि चाहे जो भी हो, यह मानव जीवन की एक अतिमहत्त्वपूर्ण और सर्वव्यापक आवश्यकता है।
विवाहों के प्रकार-मुक्त यौनाचार और उससे उत्पन्न विकट सामाजिक समस्याओं से बचने के लिये विवाह सभी समाजों में एक आदर्श व्यवस्था के रूप में मान्य है।
विवाहों के प्रकार
हमारे देश में भारतीय मान्यता के अनुसार विवाह के 3 भागो में विभाजित किया गया है
(क) ब्रह्म विवाह-माता-पिता द्वारा अग्नि को साक्षी मानकर कन्यादान किया जाना ब्रह्म विवाह कहलाता है।
(ख) गन्धर्व विवाह-जब स्त्री-पुरुष स्वतन्त्र रूप से एक-दूसरे का वरण कर लेते हैं तो वह गन्धर्व या प्रेम विवाह कहा जाता है।
(ग) राक्षस विवाह इसमें कोई पुरुष अगर किसी कन्या का अपहरण कर के उस से शादी करता है तो इस राक्षस विवाह कहा गया है।
विवाह के विकृत स्वरूप
सामाजिक परिस्थितियों एवं धार्मिक अन्धविश्वासों के कारण विवाह के अनेक विकृत रूप भी प्रचलित रहे हैं। इनमें बाल-विवाह, बहु-विवाह, कुलीन विवाह, अनमेल विवाह आदि ऐसे ही रूप हैं।
बाल विवाह ( एक सामाजिक अभिश्राप )
जन्म लेने से पूर्व अथवा बहुत छोटी आयु में लड़के-लड़कियों का विवाह करना बाल-विवाह है। भारत में ऐसे विवाह आज भी होते हैं। कानून की दृष्टि से बाल-विवाह अपराध है। राजस्थान में अक्षय तृतीया के अवसर अब भी ऐसे बच्चों के विवाह होते हैं जिनको उनके माता-पिता अपनी गोद में उठाकर विवाह-संस्कार सम्पन्न कराते हैं। हिन्दुओं में यह एक धार्मिक मान्यता है किन्तु इस तरह के कार्य जो है वह देश तथा मानवता के प्रति अपराध से कम नहीं होते है
बाल-विवाह
एक सामाजिक अभिशाप-अपूर्ण मानसिक विकास और अपरिपक्व शरीर पर मातृत्व और पितृत्व का बोझ लाद देना वस्तुतः विवाह संस्कार का उपहास है। दुर्बल और रोगी सन्तानों की भीड़ बढ़ाकर जनसंख्या की विकट समस्या में आहुति डालने वाला एक राष्ट्रीय अपराध है। इसी ने समाज में बाल-विधवाओं की संख्या में वृद्धि करके नारी के तिरस्कार और उत्पीड़न का मार्ग खोला है।
उपसंहार
सरकार ने 18 साल से कम की कन्या के विवाह पर रोक लगा रखी है , किन्तु इस धर्मप्राण देश के अनेक प्रदेशों में आज भी कानून को धता बताते हुए बाल-विवाह धड़ल्ले से हो रहे हैं। आज इसके लिए ग्रामीण क्षेत्रों में जन-जागृति की महती आवश्यकता है। अतः सरकार और जनता दोनों को ही इस कुप्रथा के उन्मूलन में सहयोग करना चाहिए। परिवार नियोजन को पलीता लगाने वाले और नारी की गरिमा और वरण-स्वातन्त्र्य का विनाश करने वाले बाल-विवाहों पर जितना शीघ्र विराम लग जाय, उतना ही देश और परिवारों के हित में होगा।
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